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मंद-मंद बहते शीतल पवन, पक्षियों के कोलाहल बीच याद आती हैं सावन-भादों में लोक मल्हारें और झूले!

ब्रज पत्रिका, आगरा। सावन-भादों महीनों में घर-आंगनों में पेड़ों पर झूले पड़ जाते थे। इनके पड़ते ही शाम को परपंरागत लोकगीतों की सुमधुर स्वर लहरियाँ भी सुनाई देने लगती थीं, जो कि अब नहीं सुनाई देतीं।

समूचे ब्रज में सावन और भादों के महीने में झूला झूलने और लोक मल्हार गायन की परंपरा अभी भी जिंदा है, जिसको अपनी देसी संस्कृति से प्रेम करने वाला तबका गांव-देहात और शहरों के गली-मौहल्लों में बरकरार रखे हुए है। आगरा के एक मौहल्ले में झूले का आंनद लेती हुई महिला और युवती। ब्रज के हर शहर में पुराने गली-मौहल्लों और गाँव-देहात में नीम और आम के पेड़ों पर झूले पड़ जाते हैं। छायाकार-लक्ष्मण निगम

ऑल इंडिया रेडियो से लेकर गली-मौहल्लों तक में सावन की सुमधुर मल्हार सुनाई देती थीं। सावन की मल्हारों को सुनने का अपना ही मज़ा होता था। जिनमें कई लोक कथाओं को पिरोया गया होता है। इन्हीं मल्हारों को रेडियो पर सुनाती आ रही आकाशवाणी की लोक गायिका सुनीता धाकड़ से मल्हारों के विषय में विस्तार से बातचीत की हमने!

इस संबंध में आकाशवाणी की लोक गायिका सुनीता धाकड़ बताती हैं,

“इन लोक मल्हारों में सिर्फ लोक कथाओं से प्रेरित मल्हार अथवा महिलाओं के अपने हिय की पीर अथवा खुशी का ही इज़हार नहीं किया गया, बल्कि कई मल्हार तो ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर भी हैं, मसलन एक मल्हार तो शहीद भगत सिंह पर भी है। जिसमें भगत सिंह को फांसी की सजा हो चुकी है, और बहिन सावन पर उनको याद करते हुए आने दिल का दर्द बयां करती है-सावन सूनो भैया बिना है रह्यो जी, एजी कोई कौन कूँ रांदूँ रस खीर…! इसी प्रकार कई और भी इसी प्रकार की मल्हार हैं जो कि हमारी समृध्द लोक सांस्कृतिक विरासत की प्रतीक हैं।”

सुनीता धाकड़ के मुताबिक तो अब “सिर्फ और सिर्फ आकाशवाणी ही है जो कि लोक संगीत को तवज़्ज़ो दे रही है वर्ना तो लोक संगीत की आज कोई पूछ नहीं है। न सरकारी प्रोत्साहन है और न गैर सरकारी ही। इसके जरिये लोक संस्कृति की सुंदर छटा बिखरती रही है। जब शीतल पवन मंद-मंद चलता है तो सहज ही लोक मल्हारों की याद आ ही जाती है। कुछ मल्हारों में प्रियतम और प्रियतमा की शिक़वा-शिकायतें हैं तो कुछ में इनकी प्यार भरी मनुहार भी तो हैं।”

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