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सावन माह में घर-आँगन में बनने लगे देसी नूडल्स ‘सेवईं’, भाई-बहन के त्यौहार रक्षा बंधन की चल रही तैयारी

ब्रज पत्रिका, आगरा। सावन का महीना शुरू होते ही घर-घर में सेवईं बनाने में जुट जाती हैं महिलाएं। उत्तर भारत सहित देश के कुछ हिस्सों में खासतौर पर इसका ज्यादा चलन रहा है। सेवईं की मशीन एक घर से दूसरे घर हस्तांतरित होने लगती है।

आगरा के एक परिवार में परंपरागत तरीके से अपने आँगन में हाथ से चलने वाली मशीन से सेवईं बनाती हुई एक महिला।
छायाचित्र-लक्ष्मण निगम

हालांकि अब बाज़ार में तैयार सेवईं आ गयी हैं मगर पुरानी परंपराओं को सहेजकर चल रहे परिवारों में आज भी सेवईं घर पर ही बनाई जाती हैं।

कुछ घरों में तो सेवईं बनाते हुए महिलाओं को मल्हारों सहित कई अन्य लोकगीत गाते देखा जा सकता है।

 

अरे सावन सूनो भैया बिना है रह्यो जी…कौन को रांदूँ बहना मेरी सेमनी जी…कौन कूँ रांदूँ रसखीर

लोक गीतों में ‘सेवईं’ के जिक्र के विषय में आकाशवाणी की लोक गायिका सुनीता धाकड़ ने ब्रज पत्रिका से कहा,

“सेवईं लोक जन-जीवन का हिस्सा रही हैं। हमारे कई लोकगीत और लोक मल्हार ऐसे हैं जिनमें इन सेवईं का साफतौर पर जिक्र भी मिलता है। एक मल्हार इस संदर्भ में मुझे याद आ रही है-‘सावन सूनो भैया बिना है रह्यो जी…!’ इसी में एक पंक्ति यह आती है, ‘अरे कौन को रांदूँ बहना मेरी सेमनी जी…कौन कूँ रांदूँ रसखीर…!’ लोक भाषा में सेवईं को ही सेमनी बोला जाता रहा है।”

देसी नूडल्स सेवईं अब सालभर रसोइयों में बनती हैं

आज के दौर के ज्यादातर बच्चे जो कि नूडल्स खा-खाकर बड़े हो रहे हैं ये उन्हें ये नूडल्स ही नज़र आती हैं। आएं भी क्यों नहीं एक तरह से ये देसी नूडल्स ही तो हैं, जो कि स्वास्थ्य के हिसाब से ज्यादा उपयोगी भी हैं। इसीलिए तो अब घरों में कुछ माता-पिता तो सालभर इनका उपयोग करने लगे हैं। लिहाज़ा सावन के महीने में दिखने वाली सेवईं अब तो रसोइयों में साल भर बनती देखते हैं।

बच्चों के लिए कौतूहल का विषय हैं, नूडल्स जैसी दिखने वाली सेवईं, तोड़ने पर डांट खानी पड़ती है

बेहद अनूठा नज़ारा दिखाई देता है जब सेवईं बनाने के बाद घरों के आँगन या छतों पर सूरज की गुनगुनी धूप में सुखाई जाती है।

बच्चों के लिए खासतौर पर ये दृश्य बेहद लुभावना होता है। लंबी लंबी सेवईं उनके लिए कौतूहल का विषय बन जाती हैं। उनको छूकर देखना तो और भी अचरज़ भरा काम होता है मगर छूते ही सेवईं टूट जाती हैं तो उनको घर में माँ या अन्य परिजनों की डांट भी खानी पड़ जाती है, भले ही यह भी सत्य है कि सेवईं तोड़कर ही रखी जाती है और फिर कढ़ाई में भूनकर गठरिया बांधकर रख दी जाती है मगर बच्चों को इन्हें तोड़ने पर उनकी शरारत की सज़ा जरूर मिलती है। हर किसी ने यह सज़ा बचपन में पायी ही होती है, क्योंकि बच्चे लंबी लंबी सूखती हुई सेवईं देखकर उसको छूने का लोभ संवरण कर ही नहीं पाते।

हिन्दुओं में सावन माह एवं रक्षाबंधन के त्यौहार पर, तो मुस्लिमों में मीठी ईद पर सेवईं का सेवन करते हैं

सेवईं हिंदुस्तान में हर आम-ओ-खास का प्रिय व्यंजन रहा है। क्य हिन्दू और क्या मुस्लिम लगभग सभी का यह प्रिय व्यंजन रहा है। हिन्दू सावन के महीने में खासकर रक्षा बंधन पर और मुस्लिम मीठी ईद पर इनका बड़े ही चाव से सेवन करते हैं, पूरी मेहमाननवाज़ी इनसे ही होती है। इनमें अपनी सामर्थ्य के हिसाब से घी और सूखे मेवे डालकर इनको और भी अधिक स्वादिष्ट बनाया जाता है। दूध डालकर भी इनको बहुतायत में खाया जाता है।

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