कोरोना महामारी से यद्ध में जो जिम्मेदार लोग मैदान छोड़ गए, धिक्कार है उन्हें, सलाम उनको जो डटे हुए हैं!
डॉ. महेश चंद्र धाकड़
“सर्वे सन्तु निरामयाः” यही संदेश और कामना तो हमारे महान राष्ट्र भारत को एक विश्व बंधुत्व की भावना समूची दुनिया को देने वाले महानतम राष्ट्र के रूप में सम्मान दिलाती है। मगर आज इस भावना के विपरीत उसी भारत भूमि में अग्रिम मोर्चे पर कोरोना जैसी महामारी से मोर्चा लेने के लिए जिम्मेदार लोग मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए हैं। मैं बात कर रहा हूँ उन निजी क्षेत्र के चिकित्साकर्मियों की जो अपनी प्राइवेट प्रैक्टिस तक से भाग खड़े हुए हैं। कोरोना के कहर के बीच इलाज़ के अभाव में अन्य बीमारियों से हो रहीं मौतें इस वक़्त चिंता का सबब बन गयी हैं। न सिर्फ ये चौंकाने वाली हैं बल्कि शर्मसार भी कर देने वाली हैं। जिस दौर में कोरोना के असली योद्धाओं को अपनी अग्रणी भूमिका का निर्वाह करना चाहिए वही इससे पीछे हट रहे हैं, ये बेहद दर्दनाक पहलू है मौजूदा समाज का। ये वही दौर है जब चिकित्सकों, नर्सिंग स्टाफ, स्वास्थ्य सलाहकारों और दवा बिक्रेताओं को अपने-अपने कर्तव्य का पूरी ईमानदारी से पालन करना चाहिए, मगर अफ़सोसजनक बात ये है कि अब कुछ लोग अपने दायित्वों का पालन करने से दूर भाग खड़े हुए हैं। हाल ही मैं एक करीबी मित्र के भाई का कोरोना के भय से मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ा तो उन्होंने मुझसे किसी उचित डॉक्टर की जानकारी इस बाबत देने के लिए मदद मांगी। मैंने अपने एक पुराने साथी पत्रकार से बात करके कुछ डॉक्टरों के नंबर उनको दिए। बहुत दुख हुआ ये जानकर कि जिस डॉक्टर को उन्होंने फोन किया था, उन्होंने मरीज को देखने की गुज़ारिश को यह कहकर टाल दिया कि वो अपने गांव में हैं, क्लीनिक पर नहीं हैं। हालांकि ये गनीमत रही या कहिए उन डॉक्टर साहब की भलमनसाहत कि उन्होंने फोन पर ही उनको मर्ज़ पूछकर दवायें लिखवा दीं, जिससे मरीज और उनके परिवारीजनों को फौरी तौर पर कुछ राहत मिली। ये तो महज़ एक उदाहरण मात्र है कि किस तरह से विभिन्न बीमारियों के मरीजों को इलाज़ के लिए तरसना पड़ रहा है। एक और घटना का जिक्र करना जरूरी समझता हूँ। एक मरीज की मौत महज़ डायलिसिस के अभाव में हो गयी। किसी भी निजी अस्पताल ने उनकी डायलिसिस करने की जिम्मेदारी नहीं निभाई। उनको हर जगह कहा गया कि पहले कोरोना का टेस्ट कराकर आओ। परिवारीजन वो टेस्ट भी करा आये, मगर रिपोर्ट समय पर नहीं दी गई। इससे इलाज़ के अभाव में उक्त मरीज ने दम तोड़ दिया। बाद में मालूम हुआ कि मरीज की रिपोर्ट कोरोनो को लेकर नेगेटिव आयी है, काश तत्पर इलाज और टेस्ट की रिपोर्ट मिल जाती तो उनकी जान न जाती। ऐसे बहुतेरे केस सामने आ रहे हैं। इसी तरह आगरा के सरकारी महिला चिकित्सालय में भी कई महिलाओं के बच्चों ने गर्भ में ही दम तोड़ देने के समाचार मिल चुके हैं वहीं एक महिला ने प्रसव के वक्त समुचित इलाज और देखभाल के अभाव में दम तोड़ दिया है। ये घटनाएं कई अहम सवाल खड़े करती हैं, उन लोगों के समाज के लिए समर्पण और निष्ठा पर जो कि सेवा की शपथ लेकर चिकित्सा सेवा के क्षेत्र में आये हैं। जिनको मरीजों से मोटी फीस और उससे भी मोटी आवश्यक-अनावश्यक टेस्ट कराने के एवज में मिले कमीशन के रूप में भरपूर धन कमाने का अवसर मिला। मगर अब सही वक्त आया है सेवा करने का तो वही लोग कोरोना से यद्ध के सार्थक योद्धा साबित होने के बजाए, भगोड़े साबित हो रहे हैं। ये स्थिति शर्मनाक और सोचनीय है। इस पर उन लोगों को विचार करना चाहिए कि उनको भगवान के बाद देवतुल्य इसीलिए माना गया है कि वे जीवनदाता हैं अगर ये ही स्थितियां रहीं तो उनके प्रति वो सम्मान और श्रद्धा कैसे बचाई जा सकेगी? जिसको कि उनके पूर्वज डॉक्टरों ने अपनी जान तक दांव पर लगाकर न सिर्फ अपने लिए बल्कि पूरे चिकित्सक समाज के लिए अर्जित किया था। यहाँ यह भी उल्लेख करना जरूरी समझता हूँ कि ये उसी दौर में हो रहा है जब उनके इतर मीडिया, सैन्य बल, पुलिस बल सहित विभिन्न सुरक्षा बलों में तैनात लोग, सरकारी और गैर सरकारी बैंकों में सेवारत बैंककर्मी, सफाईकर्मी, सरकारी अस्पतालों में जुटे डॉक्टर्स सहित नर्सिंग स्टाफ, जो कि निरंतर घर-परिवार को भूलकर तथा अपनी जान जोखिम में डालकर समर्पित भाव से सेवा में जुटे हुए हैं। उन सबके जज़्बे और हौसले को सलाम!