ब्रजभाषा की फिल्मों के जनक कहे जाने वाले फिल्मकार शिव कुमार का योगदान सिनेमा के लिए हमेशा याद किया जायेगा
डॉ. महेश चंद्र धाकड़
ब्रजपत्रिका, आगरा। ब्रजभाषा की फिल्मों के जनक कहे जाने वाले शिवकुमार का योगदान सिनेमा के लिए हमेशा यादगार रहेगा। उन्होंने न सिर्फ हिंदी सिनेमा के लिए एक से एक बढ़कर अच्छी फिल्म दी, बल्कि ब्रजभाषा के सिनेमा के लिए भी यादगार फिल्में दी हैं। जिनके लिए वह हमेशा याद किए जाएंगे। हाथरस के सासनी क्षेत्र के गांव देदामई में 12 जनवरी 1942 को जन्मे शिव कुमार 60 से 90 के दशक तक फिल्मों में सक्रिय रहे।
जहां तक हिंदी सिनेमा की बात है उनकी फिल्म ‘महुआ’ हमेशा लोगों के जेहन में जिंदा रहेगा। मोहम्मद रफी साहब की आवाज में 1969 में रिलीज फिल्म ‘महुआ’ का गीत ‘दोनों ने किया था प्यार मगर मुझे याद रहा तू भूल गई’ भी हमेशा याद किया जाएगा। शिवकुमार की फिल्मों के कई अन्य गीत भी मशहूर हुए जिनमें 1974 में आई फिल्म ‘ठोकर’ में मुकेश द्वारा गाया हुआ गीत ‘ढूंढता हूं जिनको’ बेहद लोकप्रिय रहा।
इसी प्रकार ब्रजभाषा की फिल्म ‘ब्रजभूमि’ और ‘लल्लूराम’ के लिए भी उन्हें हमेशा याद किया जाएगा। सन 1982 में रिलीज ‘लल्लूराम’ में किशोर दा की आवाज में एक गीत काफी लोकप्रिय हुआ, जिसके बोल थे-‘सांची कह रहे लल्लू राम मेरे यार बुरा मत मानो…।’
शिवकुमार ने ब्रजभाषा के सिनेमा की धमक ‘ब्रजभूमि’ से जब शुरू की, तो इस क्षेत्रीय सिनेमा ने अपना एक खास वजूद बना लिया। इसके बाद उन्होंने फिल्म ‘लल्लूराम’ बनाई। यह सिलसिला आगे भी जारी रहा, वर्ष 1986 में फ़िल्म ‘माटी बलिदान की’ बनाई। वर्ष 2000 में उन्होंने ‘कृष्णा तेरे देश में’ नामक फिल्म बनाई।
शिवकुमार ने फिल्म निर्माण और निर्देशन के अलावा अभिनय के क्षेत्र में भी अपनी धाक जमाई। जहां उन्होंने ‘महुआ’ में नायक की भूमिका में सबको प्रभावित किया, वही उन्होंने ब्रजभाषा की फिल्मों में भी शानदार अभिनय किया। इसके अलावा 1996 में आई फिल्म ‘बाल ब्रह्मचारी’, ‘रॉकी’, ‘महा बदमाश’, ‘हिमालय से ऊंचा’, ‘मजबूर’, ‘हवस’, ‘ठोकर’, ‘दोस्त और दुश्मन’, ‘महफिल’, ‘हरे कांच की चूड़ियां’, ‘पूनम की रात’ में शानदार अभिनय किया।
निर्देशन के क्षेत्र में भी जब शिवकुमार ने कदम रखा तो अपनी प्रतिभा को साबित किया। उनके द्वारा निर्देशित फिल्मों में ‘ब्रजभूमि’, ‘लल्लूराम’, ‘अहिंसा’, ‘जय शाकुंभरी मां’, ‘मिट्टी और सोना’, ‘माटी बलिदान की’, ‘हम तुम और वह’ शामिल हैं। टीवी सीरियल से भी अपनी प्रतिभा का परचम लहराया। टीवी सीरियल ‘तारा’, ‘पीढ़ियां’ और ‘मशाल’ के लिए भी उन्हें याद किया जाएगा।
अपने पत्रकारिता के करियर के दौरान मेरी शिवकुमार से कई बार मुलाकात हुई उनके अंदर मैंने आगरा को लेकर भी एक खास लगाव देखा, उन्होंने अपनी फिल्मों के निर्माण के दौरान भी अपना यह लगाव जाहिर किया। उन्होंने जब ‘लल्लूराम’ फिल्म बनाई तो उसका एक गीत आगरा किले के सामने फिल्माया। इसके अलावा उन्होंने कई बार अपनी फिल्मों में आगरा की लोकेशन पर शूटिंग की।
शिवकुमार का जो सबसे बड़ा योगदान इस क्षेत्र के लिए रहा, वह यह कि उन्होंने अपनी फिल्मों के जरिए ब्रज क्षेत्र के मृतप्राय लोकगीत संगीत और नृत्य कला को सिनेमा के पर्दे पर दिखाकर नई पीढ़ी को इनके प्रति आकर्षित किया। उनके इस योगदान को कभी भी भुलाया नहीं जा सकेगा। शिवकुमार जब भी आगरा आते थे, तो उनसे मिलने का अवसर मिलता था। उनके अंदर मैंने ब्रज क्षेत्र के प्रति एक खास लगाव महसूस किया।
शिवकुमार जिस दौर में ब्रजभाषा की फिल्में बना रहे थे उस दौर में सरकारी स्तर पर भी कोई मदद नहीं मिल रही थी। जब उत्तर प्रदेश सरकार ने यूपी में फिल्मों की शूटिंग के एवज में फिल्मों को सब्सिडी देना शुरू किया तो उन्होंने एक बार फिर ब्रजभाषा की फिल्में बनाने की सोची, मगर तब तक उनका स्वास्थ्य और उनकी क्षमताएं जवाब दे चुकी थी। वह डायबिटीज जैसी बीमारी से बेहद परेशान थे, और इसी बीमारी के चलते वे 76 वर्ष की उम्र में 2 सितंबर 2018 को इस दुनिया से चले गए।
शिवकुमार की ब्रजभाषा की फिल्मों में ब्रज में जो संस्कृति आज हमें लुप्त होती दिखाई दे रही है वही बखूबी सिनेमा के पर्दे पर अंगड़ाई लेते हुए दिखाई देती थी। वे अपनी ब्रजभाषा से बेहद प्रेम करते थे, इसीलिए उन्होंने इस भाषा में एक के बाद एक, बढ़िया से बढ़िया फिल्म बनाई। शिवकुमार की इन फिल्मों को देखने के बाद बतौर दर्शक महसूस होता है कि वह अपनी ब्रजभाषा और संस्कृति की कितनी गहरी समझ रखते थे।
ब्रजभाषा की उनकी फिल्में देखकर मैंने महसूस किया वह लोक जीवन को सिनेमा के पर्दे के जरिए आधुनिकता में डूबी नई पीढ़ी के सामने बड़ी ही शिद्दत के साथ प्रस्तुत करना चाहते थे। उन्होंने अपनी फिल्मों में न सिर्फ किरदारों को ब्रज क्षेत्र के लोक जीवन के अनुरूप गढ़ा बल्कि उसके संगीत में भी ब्रज की खुशबू को महसूस कराया। उनकी फिल्मों में नौटंकी, रसिया और मल्हार जैसी ब्रज क्षेत्र की लोक कलाओं को एक बार फिर पर्दे पर देखकर बेहद खुशी हुई।
जब वे अपनी जीवन संध्या में अपने घर वापस लौट आए तो मृत्यु से कुछ समय पहले तक मेरी उनसे मोबाइल पर बातचीत हो जाया करती थी। शिवकुमार की तरह ही ब्रज भाषा में फिल्म ‘ब्रज को बिरजू’ बना चुके फिल्मकार सिद्धार्थ नागर ने भी अपनी फिल्म ‘थप्पा’ में उन्हें एक विशेष रोल के लिए कास्ट करना चाहा, मगर स्वास्थ्य कारणों से वे उनकी फिल्म में काम नहीं कर सके। उसी दौरान होटल टूरिस्ट बंगला में जब सिद्धार्थ अपनी शूटिंग के सिलसिले में रुके हुए थे, तो शिवकुमार के ब्रजभाषा के सिनेमा के लिए योगदान की चर्चा चलने पर उन्होंने उनसे मोबाइल पर मेरी बात कराई। मैंने भी उनसे आगरा आने का आग्रह किया, मगर उन्होंने अपने स्वास्थ्य को लेकर मजबूरी जताई।
यूं तो ब्रजभाषा के लिए कई फिल्मकारों ने अच्छे प्रयास किए। इनमें सिद्धार्थ द्वारा बनाई गई फिल्म ‘ब्रज को बिरजू’ भी याद की जाएगी। आगरा के ही फिल्मकार रंजीत सामा ने फिल्म ‘जय करौली मां’ बनाई, जिसमें एक गीत बेहद लोकप्रिय हुआ, जिसके बोल थे-‘आजा महल जनाने में रपट लिखवाई दऊ थाने में।’ कई फिल्मकारों ने ब्रजभाषा के सिनेमा को जिंदा करने का प्रयास किया मगर शिवकुमार के प्रयासों का कोई मुकाबला नहीं है। जिस शिद्दत के साथ शिवकुमार ने अनवरत रूप से काम किया, उस तरीके से अगर फिर से काम हो, तो यह उनके लिए वास्तव में सच्ची श्रद्धांजलि होगी।