तू ही शिव है तू ही शंकर अजर अमर अविनाशी है, महाकाल उज्जैन विराजे विश्वनाथ तो काशी है…!
कोटा (राजस्थान) के युवा कवि नवदीप ‘श्रृंगी’ रचनात्मक लेखन के क्षेत्र में विभिन्न विषयों पर काव्य लेखन से दिखा रहे हैं अपनी प्रतिभा।
युवा कवि नवदीप ‘श्रृंगी’ गणित के शिक्षक हैं, मगर साहित्य के प्रति उनकी रुचि अनवरत रूप से बरकरार है।
ब्रज पत्रिका। युवा कवि नवदीप ‘श्रृंगी’ रचनात्मक लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं। गणित विषय को लेकर बीएससी करने के बाद नवदीप ने बीएड किया और अध्यापन के क्षेत्र में अपना करियर बनाया है। गणित के शिक्षक हैं मगर साहित्य के प्रति उनकी रुचि अनवरत रूप से बरकरार है। कोटा (राजस्थान) के सुरेश कुमार व्यास के सुपुत्र नवदीप बताते हैं, उनको जब भी समय मिलता है, विभिन्न विषयों पर लिखने बैठ जाते हैं।
कवि नवदीप ‘श्रृंगी’ कहते हैं,
“मुझे साहित्य में गहरी अभिरुचि है, जो विषय मुझे प्रभावित करते हैं, उन पर जरूर लिखने की कोशिश करता हूँ। पिछले एक साल से साहित्य में रुचि पैदा हुई है, जिसको अपनी काव्य रचनाओं के माध्यम से वह एक जरिया वह दे रहे हैं। भारत की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ ही संयुक्त राज्य अमेरिका (USA) में भी कविताएं प्रकाशित हुई हैं।”
एक कविता में उन्होंने माता-पिता की सेवा में समर्पित श्रवण कुमार जैसे बेटे को रेखांकित किया है।
“उम्मीद की चमक बाकी है, उन आँखों में आज भी,
बेटा आएगा उन्हें लेने हाँ, फिर से वापस आज भी,
करने को तो करते हैं वो दान धर्म भी बहुत,
क्यूँ नहीं करते हैं सेवा, माता-पिता की आज भी,
ईश्वर को हम सब पूजते हैं, मंदिरों में तो यहाँ,
फिर क्यों निकाला जाता है उनको मंदिरों से आज भी,
बेटा रख आया है उनको अपने घर से दूर कहीं,
लेकिन दुआयें देते हैं माँ-बाप उसको आज भी,
“श्रृंगी” बस ये याद रखना, माँ-बाप को ईश्वर समझना,
और बताना कि श्रवण पैदा हैं होते आज भी।”
कवि नवदीप ‘श्रृंगी’ ने शिव जी पर भी एक कविता लिखी।
“तू ही शिव है तू ही शंकर अजर अमर अविनाशी है,
महाकाल उज्जैन विराजे विश्वनाथ तो काशी है।
तू ही संकट हर्ता है और तू ही मंगल कर्ता है,
तू ही रचनाकार जहां का तू ही प्रलय का कर्ता है।
तू ही महेश्वर तू ही पिनाकी शशि शेखर भी तुम ही हो,
वामदेव हो विरुपाक्ष हो विष्णु वल्लभ तुम ही हो।
हे शंभू हो शिवा प्रिय तुम अंबिका नाथ कहते हो,
कामदेव के शत्रु हो तुम कामारि कहलाते हो।
तुम ही कपाली हो कृपानिधि तुम ही तो गंगाधर हो,
बड़ी-बड़ी हां जटा रखे जो तुम ही तो वो जटाधर हो।
तुम ही हो कैलाश के वासी भस्मोद्धूलितविग्रह हो,
तुम ही सामप्रिय स्वरमयी तुम सोमसूर्याग्निलोचन हो।
तुम ही जगत के गुरु हो स्वामी भूत पति भी तुम ही हो,
पाशविमोचन महादेव हो पशुपति भी तुम ही हो।
दक्ष के यज्ञ को नष्ट किया और दक्षाध्वरहर कहलाए,
पूषा के जो दांत उखाड़े पूषदंतभित कहलाए।
रुद्र भी तुम हो व्योमकेश तुम मृत्युंजय भी तुम ही हो,
तुम ही सदाशिव वीरभद्र तुम, तुम ही गणों के स्वामी हो।
हे त्रिपुरारी पाप मिटाओ भवसागर से पार करो,
इस धरती पर पाप बहुत है तुम आकर उद्धार करो।
पापी सीमा लांघ रहा है अब तो प्रभु तुम आ जाओ,
नेत्र तीसरा खोलो अपना धरा से पाप मिटा जाओ।
हे दयानिधि हे कृपानिधि तुम आकर न्याय दिला जाओ,
संताप हरो *श्रृंगी* के तुम और भव से पार लगा जाओ।”