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“इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में, लगेंगी आपको सदियाँ हमें भुलाने में। न पीने का सलीका न पिलाने का शऊर, ऐसे भी लोग चले आये हैं मयखाने में॥”

डॉ. महेश चंद्र धाकड़

कोरोना महामारी के कहर बरपाने से इंसानी समाज में विश्वव्यापी हताशा-निराशा के इस माहौल में मशहूर गीतकार पद्मभूषण गोपाल दास ‘नीरज’ जी का एक गीत मौजू माहौल में बरबस ही याद हो आया उनकी पुण्यतिथि पर। नीरज जी की ये पंक्तियां बेशक़ उत्साह और उमंग जगाने का प्रयास करती हैं-

“छिप छिप अश्रु बहाने बालो,
मोती व्यर्थ लुटाने वालो
कुछ सपनों के मर जाने से
जीवन नहीं मरा करता है।
सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आंख का पानी
और टूटना है उसको ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने बालो,
डूबे बिना नहाने बालो
कुछ पानी के बह जाने से
सावन नहीं मरा करता है।”

पद्मश्री, पद्मभूषण और यश भारती सम्मान प्राप्त नीरज जी से बतौर अखबार नवीस करीब आधा दर्जन मुलाक़ातें हुईं। तीन बार इंटरव्यू लेने का सुअवसर मिला। सहज-सरल व्यक्तित्व के मालिक नीरज जी बीड़ी पीते पीते अपनेपन से बातचीत करते थे। एक दफ़ा इंटरव्यू में बोले,

“अब फिल्मों में साफ-सुथरे शब्दों वाले गीतों के लिए कोई जगह नहीं, वर्ना हमें वो जमाना याद है, फिल्मकार हमारे साथ चाय का गिलास हाथ में पकड़कर बैठते थे मकसद होता था फ़िल्म की कहानी के अनुरूप गीत लिखवाने का। फिल्मकार-गीतकार में कमाल ट्यूनिंग थी। अब तो फिल्मों में वाहियात गीतों को ही फ़िल्माया जा रहा है।”

100 वर्ष से अधिक का हिंदी सिनेमा वर्ल्ड सिनेमा में जो इतरा रहा है, उसके इस समृद्ध स्वरूप में नीरज जी ने मोती जड़े हैं।

4 जनवरी 1925 को ब्रिटिश काल के संयुक्त आगरा अवध प्रान्त, जिसे आज उत्तर प्रदेश कहते हैं, के इटावा जिले के पुरावली गांव में बाबू ब्रजकिशोर सक्सेना के यहाँ जन्मे नीरज जी का जीवन संघर्षपूर्ण रहा। छह साल की उम्र में पिता दुनिया छोड़ गए। नौकरी कर-करके एमए (साहित्य) तक पढ़ाई की। कई नौकरी कीं। मेरठ कॉलेज और अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में अध्य्यापन उल्लेखनीय है। उत्तर प्रदेश सरकार ने भाषा संस्थान का अध्यक्ष बनाकर केबिनेट मंत्री का दर्ज़ा दिया। नीरज जी का आगरा से पारिवारिक जुड़ाव रहा। पत्नी मनोरमा शर्मा जी सामाजिक क्षेत्र का जाना पहचाना नाम थीं। नीरज जी ने 19 जुलाई 2018 को दुनिया को अलविदा कहा।

नीरज जी की ओशो के दर्शन में खास रुचि रही, गूँढ़ दार्शनिक विषयों पर चर्चा करते तो लगता किसी गीतकार से नहीं, किसी दार्शनिक से बात कर रहे हैं। गीतों में जीवन के फ़लसफ़े को ही पिरोकर अमर हो गए।

1970 में आई फ़िल्म ‘प्रेम पुजारी’ के इस गीत में देखिए वह प्रेम अपने तरह से परिभाषित करते हैं।

“शोखियों में घोला जाये, फूलों का शबाब
उसमें फिर मिलायी जाये, थोड़ी सी शराब
होगा यूं नशा जो तैयार
हां…
होगा यूं नशा जो तैयार, वो प्यार है…!”

सूफ़ियाना अंदाज़ में लिखने वाले नीरज जी ने 1966 में आई ‘नई उमर की नई फसल’ मूवी में गीत क्या खूब लिखा-“कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे…!” इसका ये गीत भी है-“देखती ही रहो आज ये दर्पण न तुम प्यार का ये मुहूरत निकल जायेगा!” 1981 में आई ‘शर्मीली’ के नगमे के बोल देखिए क्या खूब हैं।

“खिलते हैं गुल यहां, खिलके बिखरने को
मिलते हैं दिल यहां, मिलके बिछड़ने को…!
कल रहे ना रहे, मौसम ये प्यार का
कल रुके न रुके, डोला बहार का
चार पल मिले जो आज, प्यार में गुज़ार दे
खिलते हैं गुल यहां…!”

तीन साल फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड मिले। 1969 में आई फ़िल्म ‘चंदा और बिजली’ के गीत के लिए 1970 में अवार्ड मिला।

“काल का पहिया घूमे भैया
लाख तरह इन्सान चले
ले के चले बारात कभी तो
कभी बिना सामान चले…!”

1971 में फ़िल्म ‘पहचान’ के गीत के लिए उनको फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार मिला। जिसमें ऐसी काल्पनिक दुनिया बसाने का स्वप्न है जिसमें आदमी को सिर्फ आदमियत की नज़र से देखें।

“बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं
आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं
एक खिलौना बन गया दुनिया के मेले में
कोई खेले भीड़ में कोई अकेले में
मुस्कुरा कर भेंट हर स्वीकार करता हूं
आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं…
मैं बसाना चाहता हूं स्वर्ग धरती पर
आदमी जिस में रहे बस आदमी बनकर
उस नगर की हर गली तैय्यार करता हूं
आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं…!”

1970 में आयी फ़िल्म ‘मेरा नाम जोकर’ के जिस गीत के लिए 1972 में नीरज जी को फिल्म फेयर अवार्ड मिला था वो ये है-

“ऐ भाई! जरा देख के चलो, आगे ही नहीं पीछे भी
दाएं ही नहीं बाएं भी, ऊपर ही नहीं नीचे भी
ऐ भाई!
तू जहां आया है वो तेरा- घर नहीं, गांव नहीं
गली नहीं, कूचा नहीं, रस्ता नहीं, बस्ती नहीं
दुनिया है, और प्यारे, दुनिया यह एक सर्कस है
और इस सर्कस में- बड़े को भी, छोटे को भी
खरे को भी, खोटे को भी, मोटे को भी, पतले को भी
नीचे से ऊपर को, ऊपर से नीचे को
बराबर आना-जाना पड़ता है…!”

खुद के बारे में लिखा ये शेर मुशायरों में हमेशा फ़रमाइश रहा।

“इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में, लगेंगी आपको सदियाँ हमें भुलाने में। न पीने का सलीका न पिलाने का शऊर, ऐसे भी लोग चले आये हैं मयखाने में॥”

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