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हिंदी सिनेमा की जब जब बात चलेगी याद आएंगे सुनील दत्त साहब और उनकी अदाकारी

ब्रज पत्रिका, आगरा। हिंदी सिनेमा के कभी बादशाह रहे अभिनेता श्री सुनील दत्त साहब को आज उनकी जयंती पर याद करते हुए उनके साथ ये फ़ोटो बरबस ही उस मुलाक़ात को ताज़ा कर गए जो उनसे ताज़ खेमा होटल के टीले पर हुई थी, वे अपनी एक शांति यात्रा के सिलसिले में ताजनगरी आगरा आये थे। एक-एक लम्हा उनके साथ का मुझे ताउम्र याद रहेगा क्योंकि वो बन ही गया था कुछ खास। मीडिया से रूबरू होने के बाद जब उन्होंने अपनी शांति यात्रा की यहाँ से शुरुआत करने की बात कही तो उन्होंने कहा-“चलो पत्रकारों को ही शांति यात्रा की यह प्रतीक टोपी पहनाकर करते हैं ये नेक मकसद के लिए शुरुआत। मज़े की बात ये है कि मैं उनसे कुछ ज्यादा ही सवाल पूछ रहा था, तो उन्होंने मुझे ही पकड़ लिया, और मुझे शांति यात्रा की टोपी पहनाकर अपने अभियान की शुरुआत की। उनके साथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे श्री जगदंबिका पाल साहब भी थे। वह भी इन्हीं यादगार तस्वीरों में मुस्कुराते हुए दिख रहे हैं।

उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्री जगदंबिका पाल के साथ हिंदी सिनेमा के सुपर स्टार सुनील दत्त साहब आगरा में ताजमहल के करीब होटल ताज खेमा के बेहद खूबसूरत टीले पर अपनी एक शांति यात्रा के उदघाटन के बाद। छह जून को हिन्दी सिनेमा के लोकप्रिय व महान अभिनेता सुनील दत्त साहब की जयंती थी।
-फ़ाइल फ़ोटो

बेशक़ हिंदी सिनेमा में अपनी बेहद शानदार कदकाठी और अभिनय से कई दशक तक अपनी बादशाहत कायम रखने वाले श्री सुनील दत्त साहब को भुला नहीं पायेंगे।
सुनील दत्त साहब का जन्म 6 जून 1929 में ब्रिटिश भारत के पंजाब राज्य में झेलम के खुर्दी गाँव में हुआ ये अब पाकिस्तान में है। बँटवारे के दौरान परिवार भारत आ गया। उन्होंने मुम्बई के जय हिन्द कालेज में दाखिला ले लिया। वहीं जीवन यापन के लिये बस कण्डक्टर की नौकरी तक की। इसके बाद मन मुताबिक करियर की शुरुआत ‘रेडियो सीलोन’ से, जो कि दक्षिणी एशिया का सबसे पुराना लोकप्रिय रेडियो स्टेशन है, एक उद्घोषक के रूप में हुई, जहाँ बेहद लोकप्रिय हुए। इसके बाद हिन्दी फ़िल्मों में अभिनय करने की ठानी। उनका असली नाम बलराज दत्त था, फिल्मी दुनिया में वे सुनील दत्त के नाम से जाने जाते हैं। 1955 मे बनी ‘रेलवे स्टेशन’ उनकी पहली फ़िल्म रही लेकिन 1957 की ‘मदर इंडिया’ ने उन्हें बालीवुड का फिल्म स्टार बना दिया। डकैतों के जीवन पर बनी उनकी सबसे बेहतरीन फिल्म ‘मुझे जीने दो’ ने उन्हें वर्ष 1964 का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार दिलाया। उसके करीब दो वर्ष बाद ही 1966 में ‘खानदान’ फिल्म के लिये फिर फ़िल्मफ़ेयर का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार मिला। 1957 में बनी महबूब खान की फिल्म ‘मदर इण्डिया’ में शूटिंग के वक़्त लगी आग से नरगिस को बचाते हुए सुनील दत्त बुरी तरह जल गये थे। इस घटना से प्रभावित हो नरगिस जी की माँ ने बेटी का विवाह 11 मार्च 1958 को सुनील दत्त साहब से कर दिया। 1950 के आखिरी वर्षों से लेकर 1960 के दशक में उन्होंने हिन्दी फिल्म जगत को कई बेहतरीन फिल्में दीं, जिनमें साधना (1958), सुजाता (1959), मुझे जीने दो (1963), गुमराह (1963), वक़्त (1965), खानदान (1965), पड़ोसन (1967) और हमराज़ (1967) खासतौर से उल्लेखनीय हैं। फ़िल्म निर्माण और निर्देशन के क्षेत्र में भी उन्होंने अपनी काबिलियत दिखाई। ‘ये रास्ते हैं प्यार के’ फ़िल्म के वे निर्माता रहे। यादें, गौरी, रॉकी, डाकू और जवान फ़िल्म के निर्देशक रहे। इनके अलावा फ़िल्म रेशमा और शेरा, दर्द का रिश्ता, ये आग कब बुझेगी के वह निर्माता और निर्देशक दोनों ही रहे हैं। इसके अलावा कुछ पंजाबी फिल्मों में भी अभिनय किया। समाजसेवा व भारतीय राजनीति में भी सार्थक भूमिका निभायी। मुम्बई उत्तर-पश्चिम सीट से पांच बार सांसद चुने गए श्री दत्त साहब कांग्रेस की डॉ.मनमोहन सिंह सरकार में वर्ष 2004 से 2005 तक खेल एवं युवा मामलों के कैबिनेट मन्त्री भी रहे। अपने हिंदी सिनेमा के महानायक और लोकप्रिय समाजसेवी एवं राजनीतिज्ञ सुनील दत्त साहब ने 25 मई 2005 को दुनिया को अलविदा कहा। बेटी प्रिया दत्त जी ने उनकी राजनीतिक विरासत संभाली। वह उसी क्षेत्र से सांसद रही हैं। पुत्र संजय दत्त जी बॉलीवुड फिल्मों के स्टार एक्टर हैं।

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