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मन के भावों और कुछ ख्यालातों को कलमबद्ध किया दीपक गोगिया ने काव्य संकलन ‘अनसुलझे ख़्यालात’ में!

दीपक गोगिया के काव्य संकलन की इन रचनाओं में जीवन के कई रंग समावेशित हैं।

दीपक खुद से करते हैं कई सवालात! उभरती है टीस उनके इन शब्दों से-काश सुलझ पाते ये मेरे अनसुलझे ख़्यालात!

काव्य संकलन के बाद अब कथा संग्रह पर चल रहा है काम, कथाएं जीवन के आसपास की घटनाओं पर होंगी और मोटिवेशनल भी-दीपक गोगिया

ब्रज पत्रिका, आगरा। पहले साहित्य के प्रति रुचि का अंकुरण हुआ, फिर साहित्य रचने की अभिलाषा प्रस्फुटित होने लगी। इस रचनात्मकता को जरिया मिला सोशल मीडिया से, जब बहिन ज्योति ने देखा, तो भाई को एक सार्थक मशवरा दिया, क्यों नहीं इन रचनाओं को संकलित करके एक पुस्तक प्रकाशित करवाते आप? बहिन की सलाह काम आयी और भाई ने एक संकलन तैयार करके उसको पुस्तक का स्वरूप दे डाला।

इसी प्रक्रिया से गुज़रते-गुज़रते लेखक के रूप में उभरे हैं दीपक गोगिया, जो कि मूल रूप से तो दयालबाग डीम्ड यूनिवर्सिटी में केंद्रीय प्रशासनिक कार्यालय में वरिष्ठ सहायक के रूप में सेवारत हैं, मगर लेखन में अपनी ज़िंदगी के शुरुआती दिनों की उनकी गहरी रुचि ने उनके अंदर आज एक शानदार रचनाकार को भी जन्म दे डाला है। इसी के फलस्वरूप आज उनका काव्य संकलन ‘अनसुलझे ख़्यालात’ प्रकाशित हो सका है, जिसको साहित्य प्रेमियों द्वारा खासा पसंद भी किया जा रहा है।

उनके इस संकलन की यूँ तो उनकी सभी रचनायें लुभाती हैं, मगर उनकी कुछ रचनाओं में तो बहुत ही अलग तरह का आकर्षण महसूस होता है। ‘ख़्वाब और ख्वाहिशें’ नामक इस संकलन में एक रचना तो क्या खूब लिखी है।

“धूप को लौटा दिया है देहरी से,
बड़ी मुश्किल से ख्वाब सोए हैं,
कहीं उठ न जाएं!”

दीपक गोगिया ने बहुत ही सहज और सरल भाषा का प्रयोग अपनी रचनाओं में किया है।

दीपक गोगिया अपनी रचनाधर्मिता के आगाज़ के विषय में पूछने पर बताते हैं,

“12वीं कक्षा में आर.ई.आई. कॉलेज में पढ़ता था, केमिस्ट्री की लैब में प्रैक्टिकल चल रहे थे, तभी एक प्रयोग के दौरान गलती से एक मिरर जमीन पर गिरा और टुकड़े-टुकड़े हो गया। एक मित्र ने इसी बात पर बोला,
“आईना तोड़ने वाले ये तुझे ध्यान रहे,
अक्स बंट जायेगा तेरा भी इतने टुकड़ों में!”
वो रचना कहीं दिमाग में बैठ गयी। उसके बाद शायरी की तरफ़ रुझान पैदा हुआ तो शायरी पढ़ना शुरू कर दिया। जब पढ़ाई पूरी करने के बाद एमआर बना तो लखनऊ में मेरी नियुक्ति हुई, वहाँ की तो फ़िज़ां में ही शेर-ओ-शायरी घुली-मिली हुई है। वहीं काफी मुशायरे और कवि सम्मेलनों में बतौर श्रोता शिरकत की। इसका असर ये हुआ कि जब भी ख़ाली समय मिलता तो मैं ख़ुद लिखने बैठ जाता था। डायरी के पन्ने भरने लगे। काव्य के ये अंकुर निरंतर फूटने लगे। सिलसिला जारी रहा वर्षों तक। इसी बीच 1996 में लखनऊ में ही अपने मित्र सुवेंद्र के घर कवि हृदय राजनेता पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी से मुझे मिलने का मौका मिला, उनको कुछ अपनी रचनायें इस मौके पर जब सुनाईं तो उन्होंने सराहना की, और लेखन को इसी तरह जारी रखने के लिए प्रोत्साहित भी किया। जब दयालबाग डीम्ड यूनिवर्सिटी में आया नौकरी के लिए तो लेखन का ये सिलसिला बदस्तूर जारी रहा। यहीं सोशल साइंस डिपार्टमेंट में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं मेरी बहिन डॉ. ज्योति गोगिया, उन्होंने इस लेखन को पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवाने के लिए उत्प्रेरित किया। इसके बाद मैंने इस काम को अंज़ाम देने के लिए पब्लिशर्स ढूंढ़ने शुरू किए। इस दरमियान सोशल मीडिया पर भी योर कोटस के प्लेटफॉर्म के जरिये लेखन जारी रखा। वहाँ मेरा ये रचनाओं का संकलन होता रहा। अंततः ब्लू रोज पब्लिशर्स के रूप में मेरी पुस्तक के प्रकाशन के लिए पब्लिशर की तलाश पूरी हुई, और आज ये संकलन ‘अनसुलझे ख़्यालात’ आपके हाथ में है।”

दीपक गोगिया ने इस रचनाधर्मिता को और आगे बढ़ाया है अपने ही जैसे अन्य रचनाकारों के सहयोग से, उन्होंने एक शब्दहार नाम से इंस्टाग्राम पर एक पेज बनाया है, जो रचनाकारों को एक मंच देने का काम कर रहा है। ये कारवाँ निरंतर आगे बढ़ रहा है, हज़ारों रचनाकार और साहित्य प्रेमी इससे जुड़ रहे हैं। यहाँ सबके द्वारा अपनी-अपनी बेहतरीन रचना को साझा करने का सिलसिला चल रहा है।

आगामी योजनाओं के बावत बात चलने पर दीपक गोगिया बताते हैं, अब एक कथा संग्रह को तैयार करने का काम चल रहा है। इसमें वास्तविक घटनाओं से प्रेरित कहानियों को पढ़ने का आपको अवसर मिलेगा। जो अक्सर हमारे आसपास ही घटित होती हैं। यह 11 मोटिवेशनल स्टोरीज़ का एक छोटा सा संकलन आपको पढ़ने को मिलेगा।

अनसुलझे ख़्यालात से दीपक गोगिया की चुनिंदा रचनायें-

ज़िन्दगी फिर भी तन्हा-तन्हा ही गुज़री,
कहने को क़ाफ़िलों का हिस्सा रहा हूँ मैं!

सियासी जंग में ज़िन्दगी बहुत सस्ती है,
इंसानियत को मार कर, सियासत खूब हंसती है!

इकतरफा मुहब्बत का बस इतना फसाना है,
रोना है अकेले में, अकेले ही मुस्कराना है!

यादें भी…
परिंदों के माफिक हैं
दिन उगे, दूर निकल जाती हैं
दिन ढले, लौट के आ जाती हैं!

ऐ उम्र-ए-गुरेजा थोड़ा थम जा
हसरतों के महल सज रहे हैं
उम्मीदों के किले बन रहे हैं
ख्वाबों के रंगीन बिछौने पर!

मैं रोज उसमें एक नया शब्द ढूँढता हूँ,
और वो मुझमें, एक नई क़िताब!

अब दस्तक़ दी है तेरे दर पर
तो खाली हाथ न जाना
दर्द का कारोबार करता हूँ
कुछ अपने कह जाना
कुछ मेरे सुन जाना!

दोस्ती को इबादत समझ कर निभाता हूँ,
मुझे मेरे हर दोस्त में ख़ुदा दिखता है!

अक्सर काली स्याह रातें…
रंगीन शामों के बाद ही गहराती हैं!

गांव का बचपन भी मोबाइल में व्यस्त है,
बूढ़ा बरगद ये देखकर आज शोक संतप्त है!

दीपक गोगिया के लेखन के दौरान विषय तमाम रहे। चाय को केंद्रित करके भी उन्होंने बहुत कुछ लिखा है, जिसको ‘चायरी’ के नाम से इसमें समाहित किया है, पेश हैं कुछेक!

ना मोहब्बत, ना किसी से यारी है
चाय से इश्क़ बदस्तूर जारी है!

हल्का धुंधलका बारिश की बूंदें
घर की छत और हाथ में एक कप चाय
सुकून की परिभाषा इससे बढ़कर और क्या होगी?

चाय से इस कदर मोहब्बत है…
गोया माशूका हो, कोई सात जन्मों की!

चाय भी तब अमृत की प्याली हो जाती है,
जब माँ अपने हाथों से बनाकर पिलाती है!

ऐ ज़िन्दगी फिर दिन भर तेरे स्यापे चलेंगे,
अभी तो सुकून से दो घूँट चाय पीने दे!

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