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फिल्‍म संगीत में हमारे विशाल भारतीय सांस्कृतिक ताने-बाने का उपयोग किया जाना चाहिए-हरिहरन

पार्श्‍व गायक हरिहरन और विक्रम घोष ने कहा, फिल्मों में हर प्रकार का संगीत होना चाहिए।

गीत का श्रुति पहलू आजकल अक्सर गायब रहता है-हरिहरन

क्षेत्र-आधारित सिनेमा संगीत निर्देशकों को भूमि के एक भाग को चित्रित करने का मौका देता है-विक्रम घोष

ब्रज पत्रिका। भारत के 51 वें अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) के दौरान संगीत और सिनेमा के बारे में आयोजित वर्चुअल ‘इन-कन्वर्सेशन’ सत्र में संगीत के दोउस्तादों – पार्श्व गायक पद्मश्री हरिहरन और तालवादकविक्रम घोष ने कुछ इस तरह की टिप्पणियां की।

बहुचर्चित पार्श्व गायक हरिहरन ने कहा,

“भारत में, हमारे जीवन में संगीत है। यहां, अचानक गीत गाना शुरू करना कोई बड़ी बात नहीं है। यही भारत है। इसलिए, फिल्मी गाने यहां लोकप्रिय हो जाते हैं। हमारे पास कुछ बेहतरीन गाने हैं, जिन्हें देखा जाता है चाहे फिल्म न भी देखी हो।”

हरिहरन कहते हैं,

“जब सिनेमा और संगीत का मिलन होता है, तो उसका सभी आनंद उठाते हैं। भारत में सिनेमा संगीत और नृत्य से भरे थियेटर पर काफी असर डालता है।नृत्य, संगीत और सिनेमा में नवरस सर्वव्यापी रहा है।”

बकौल हरिहरन,

“आधुनिक फिल्मों में संगीत बदल गया है, साथ ही समाज में भी बदलाव आया है”। 50 के दशक में फिल्मी गाने और पार्श्‍व स्‍वर लिपि भारतीय शास्त्रीय विधा से भरी हुई थी।”

भारतीय सिनेमा में संगीत के क्रमिक विकास पर टिप्पणी करते हुए, विक्रम घोष ने कहा,

“जब हमने स्वतंत्रता प्राप्त की, उस समय की फिल्मों में भारतीय होने का जोर था। इसलिए, दर्शकों को भारतीय शास्त्रीय संगीत के माध्यम से भारतीयता की प्रगति दिखाई जाती थी।”

बाद के समय के बारे में, हरिहरन ने कहा,

“उसके बाद 70 का दशक आया, जब हिंदी सिनेमा‘ वास्तविक सिनेमा या ‘कलात्‍मक सिनेगा’ की लहर से प्रभावित था, जिसमें बहुत कम गाने होते थे। 90 के दशक में आवाज में नाटकीय रूप से मामूली बदलाव आया। इस अवधि में, गायकों को एक राहत देते हुए, हर तरह की ध्वनि सुनाई देती थी। 60 और 70 के दशक में आवाज की स्पष्टता थी, 80 के दशक में बहुत अधिक वाद्य यंत्र देखे गए और 90 के दशक में, आवाज स्पष्टता पूरी तरह से गायब हो गई।”

मशहूर पार्श्‍व गायक ने कहा, 

“नौशाद की गंगा-जमुना में, उन्होंने लोक संगीत का बहुत इस्तेमाल किया। फिल्म की पूरी पार्श्‍व स्‍वर लिपि  और फिल्‍म की एक प्रकार की संगीत रचना ललित और मारवा रागों पर आधारित थी। इसने दृश्यों में गहराई जोड़ दी। उस अवधि में एक सौहार्द था।”

इस संदर्भ में, विक्रम घोष का मानना है कि ए आर रहमान के आने के साथ, काफी बदलाव आया; बहुत सारे उपकरणों का इस्तेमाल किया जाने लगा।

हरिहरन ने कहा,

“इलिया राजा की अन्नकली में, तमिल लोक संगीत और कर्नाटक संगीत के बीच एक अद्भुत सामंजस्य था।”

विक्रम घोष ने सहमति व्‍यक्‍त की,

“जब इलिया राजा दक्षिण पर शासन कर रहे थे, पंचमदा मुंबई में संगीत के राजा थे। उन्‍होंने बहुत सारे रास्‍तों को पश्चिमी कर दिया। आर. डी. बर्मन ने एफ्रो-क्यूबन और लैटिन संगीत को रूपांतरित किया।”

विक्रम घोष ने कहा,

“कुछ फिल्मों में आर.डी. बर्मन द्वारा इस्तेमाल की गई रचनाएं भारतीय संगीत के लिए एक विरासत हैं। सत्ते पे सत्ता में, अमिताभ बच्चन का किरदार एक सुर में गूँज गया। शोले में, चल धन्नो चल में शांता प्रसाद जी के तबले का जादू चल गया। यादों की बारात में गाना चुरा लिया है तुमने जो दिल को, इस्तेमाल की गई आवाज़ों के लिए विशिष्ट है, जबकि तीसरी मंज़िल एक अन्‍य फ़िल्म है जिसे संगीत बनाने के लिए इस्तेमाल अनोखी आवाज़ों के लिए जाना जाता है।”

हरिहरन ने कहा, 

“70 के दशक में, दक्षिण भारत ने बॉलीवुड संगीत से प्यार करना शुरू किया”।

जाने-माने फिल्म निर्माता और उत्कृष्ट संगीतकार सत्यजीत रे का नाम भी चर्चा में लिया गया। विक्रम घोष ने कहा, 

“उन्होंने बंगाली सिनेमा में बहुत सारी दक्षिण भारतीय ध्वनियों को डाला। उन्होंने अपनी फिल्म गोपी गेन बाघा बैन में दक्षिण भारतीय संगीत के पूरे ग्लैमर का इस्तेमाल किया।”

हरिहरन ने कहा,

“मुझे लगता है कि भारतीय सिनेमा में लिप सिंकिंग का उपयोग कम हो गया है। फिल्मी-गानों में मॉड्यूलेटरी नोट भी कम हो रहा है। आजकल बहुत सारी स्‍वर लिपियां इलेक्ट्रॉनिक संगीत द्वारा निर्मित होती हैं।”

उन्होंने यह भी महसूस किया,

“जबकि कुछ गाने लाइव गाते हुए सुंदर लगते हैं, डबिंग के बाद आवाज़ अलग लगती है।”

हरिहरन ने इस बात पर सहमति व्‍यक्‍त की कि वर्तमान फिल्मों और संगीत के बारे में, विक्रम घोष ने एक सकारात्मक नोट में कहा, देश के विभिन्न क्षेत्रों में बहुत सारी हिंदी फिल्में तैयार होती हैं। परिणाम स्वरूप, विविधता से भरे हमारे देश के विभिन्न हिस्सों के लोक और स्थानीय संगीत लोकप्रियता प्राप्त कर रहे हैं।

उन्होंने कहा,

“भारत के विशाल सांस्कृतिक ताने-बाने का उपयोग किया जाना चाहिए।”

संगीत के उस्‍ताद ने कहा, ए. आर. रहमान ने शानदार तरीके से यह काम किया है। फिल्म ‘लगान’ इसका एक सुंदर उदाहरण है।

विक्रम घोष ने थ्रिलर टोरबाज़ के की स्‍वर लिपि तैयार करने के अपने अनुभव को साझा किया। फिल्म में अफगानिस्तान का एक दृश्‍य है जिसके लिए संगीत को मध्य-पूर्वी ध्वनियों की आवश्यकता थी।

“हालांकि निर्देशक उस क्षेत्र का ऑडियो-मैप नहीं चाहते थे। इसने मुझे उस क्षेत्र की भावना पैदा करने के लिए विभिन्न स्वदेशी वाद्य ध्वनियों का उपयोग करने की अनुमति दी।”

हरिहरन का मानना है,

“वर्तमान समय में संगीत की बारीकियां गायब हैं, जो किसी की रूह के लिए आवश्यक है। एक गीत का श्रुति पहलू आजकल गायब है।”

विक्रम घोष ने इसी तर्ज पर कहा,

“डांस बीट्स के साथ चक्‍कर खाते हुए घूमना चला गया।”

समापन पर, दोनों संगीतकारों ने कहा कि फिल्मों में हर प्रकार का संगीत होना चाहिए।

“आपको गानों और मॉड्यूलेशन में विविधता चाहिए।”

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